इस कविता में व्यंगात्मक तरीके से कवि ने लोगों के मुद्दे से फिसलने वाली छवि को व्यक्त करने की कोशिश की है। इसका किसी जाति-धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। क्यूंकि कवि तो बस दूबे शब्द का प्रयोग समाज को डुबाने और भटकाने वाले चरित्रों को प्रदर्शित करने का अपना अवांछित प्रयास किया है।
‘दूबे जी का स्वप्न ज्ञान’
सबको तरक्की जपने थे,
पर किसको धूप में तपने थे।
सोए हुए जो सपने थे,
अपने में ही वो अपने थे।।
मां उसकी बिहारी और,
पिता खेत के पूजारी थे।
दामाद उनका था व्यवसायी,
पर घर में दाल-भात और तरकारी थे।।
अच्छा भैया (दूबे) जी और कहो,
मुन्नू उनका बेटा और चुनिया उनकी बहु थी,
अरे धाकड़ आकड़ तो थी,
पर श्रीदेवी सी हुबहू थी।।
ये सब छोड़ो दूबे जी,
सपने की बात बताओ।
कुछ कहो अलबेला;
कुछ तो अजब ढंग का सुनाओ!
राम राम कहकर दूबे जी,
फिर आगे सपने पर बढ़ गए।
बीच-बीच में बातों से ही,
चच्चा चौधरी पर चढ़ गए।।
सपने वो होते हैं,
जो जगते-जगते देखा जाए।
न किसी के द्वारे फेंका जाए,
न किसी के द्वारा लपेटा जाए।।
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